जल प्रदूषण (Water Pollution)
नमस्ते दोस्तों मैं Suhana आज के इस Article में आपको जल प्रदूषण के सभी Concept को बताऊँगी जिसमें जल प्रदूषण Water Pollution in Hindi, जल प्रदूषण समस्या, जल प्रदूषण के कारण, जल प्रदूषण के उपाय, जल प्रदूषण पर निबंध, जल प्रदूषण क्या है, जल प्रदूषण के स्रोत, जल प्रदूषण के प्रकार, जल प्रदूषण के दुष्प्रभाव, जल प्रदूषण के निवारण, जल प्रदूषण नियंत्रण एवं निवारण अधिनियम 1974 से संबंधित हम सारे तथ्यों के बारे में पढ़ेंगे और जानेंगे जो कि 8th, 10th, 12th, B.Sc., B.A., UPSC, SSC, PSC और अन्य Competitive Exams में हमेशा पूछा जाता है।
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जल प्रदूषण Water Pollution in Hindi जल प्रदूषण समस्या
जल में अनिश्चित या अवांछनीय पदार्थों (Undesirable Substance) का मिला होना या पाया जाना “जल प्रदूषण” कहलाता है। ये अवांछनीय पदार्थ, कार्बनिक, अकार्बनिक, जैविक एवं रेडियोधर्मी तत्त्व हो सकते हैं। इन पदार्थों से युक्त जल पशु, मनुष्य, कृषि आदि के उपयोग के लिए हानिकारक हो जाता है।
जल में स्वयं शुद्धीकरण (Auto Purification) की क्षमता होती है, परन्तु जब मानव जनित स्रोतों से उत्पन्न प्रदूषकों का जल में सांद्रण इतना अधिक हो जाता है, कि वह जल की धारण क्षमता तथा स्वयं शुद्धीकरण की क्षमता को कम अथवा समाप्त कर देता है, तो जल प्रदूषित हो जाता है।
जल प्रदूषकों के स्रोत (Sources of water Pollutants) :
उत्पत्ति के आधार पर जल प्रदूषकों के स्रोतों को दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है –
1. बिन्दु स्रोत (Point Source) :
बिन्दु स्रोत में प्रदूषक किसी निश्चित स्थान से नालियों अथवा पाइपों द्वारा पानी के विशाल स्रोत में गिरते हैं। जैसे- नगरपालिका सीवेज, पावर प्लांट तथा फैक्ट्रियों से वाहित प्रदूषक का नदी, झील, जलाशयों तथा समुद्रों में गिरना आदि।
2. गैर-बिन्दु स्रोत (Non-Point Source) :
इसमें प्रदूषक बड़े और विस्तृत क्षेत्रों से जैसे- खेतों, चारागाहों, निर्माण स्थलों, खदानों, गड्ढों, सड़क व गलियों से वाहित होकर आते हैं। बिन्दु सोतों पर जल प्रदूषण नियंत्रण सरल होता है, जबकि गैर बिन्दु स्रोत प्रदूषण को नियंत्रित करना अत्यन्त जटिल होता है।
जल प्रदूषण के प्रभाव (Effects of water Pollution) :
1. मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव (Effects on Human Health) :
घरेलू कचरा एवं सीवेज हानिकारक जीवों के विकास हेतु अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है, जो टाइफाइड, हैजा, पेंचिश, पीलिया आदि संक्रामक रोगों का कारक है। औद्योगिक इकाइयों के अपशिष्ट जल में अनेक विषाक्त धातुएँ जैसे- पारा, सीसा, जस्ता, कैडमियम आदि पायी जाती हैं। अब यह गंदा जल विभिन्न रोगों का कारण बनती है।
• पारा युक्त जल से मिनामाटा रोग, अंग शून्यता, मानसिक असंतुलन, दृष्टि का धुंधलापन आदि विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं।
• ताँबे के प्रभाव से उच्च रक्तचाप, चक्कर आना, थकान का अनुभव आदि समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
• जिंक के प्रभाव से वृक्क (Kidney) को क्षति पहुँचती है।
• कैडमियम के प्रभाव से इटाई-इटाई नामक रोग होता है।
2. जलीय पारितंत्र पर प्रभाव (Effects on Aquatic Ecosystem) :
जल प्रदूषण के कारण जलीय पारिस्थितिकी तंत्र में उपस्थित पादपों एवं जीव-जन्तुओं के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक अभिलक्षणों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
जलीय जीवों को जीवित रहने के लिए जल में घुलित ऑक्सीजन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, किन्तु घरेलू अपशिष्टों, उर्वरकों एवं औद्योगिक कचरों के जलीय निकाय में मिलने से निकाय में पोषक तत्वों की अधिकता के कारण शैवालों की संख्या में वृद्धि होती है जिससे जल के भीतर प्रकाश की पहुँच बाधित होती है।
फलतः प्रकाश संश्लेषी जीव एवं पादप प्रकाश के अभाव में नष्ट होने लगते हैं। नष्ट हुए पौधों एवं जैविक पदार्थों का सूक्ष्म जीवों द्वारा अपघटन होने से जल में घुली ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में जलीय जीवों का विनाश होता है इस कारण प्लवक एवं मछलियाँ आदि भी समाप्त होने लगती हैं।
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सुपोषण समस्या (Eutrophication) :
सुपोषण जलीय पारितंत्र की एक मुख्य पर्यावरणीय समस्या है। वस्तुतः जब घरेलू अपशिष्ट, नाइट्रोजन एवं फॉस्फोरस युक्त उर्वरक अपशिष्ट एवं औद्योगिक कचरा जलीय निकायों में मिलता है तो इनमें पोषक तत्वों की तीव्र वृद्धि होना सुपोषण कहलाता है।
सुपोषण के कारण शैवालों की संख्या में तीव्र वृद्धि होती है, जिसे शैवाल प्रस्फुटन (Algal Bloom) कहा जाता है।
जैव ऑक्सीजन माँग (Biological Oxygen Demand) :
• जल में कार्बनिक तत्वों के जैव रासायनिक अपघटन (Biochemical Decomposition) हेतु आवश्यक ऑक्सीजन की मात्रा को जैव ऑक्सीजन माँग (BOD) कहते हैं। इससे जल प्रदूषण के स्तर का मापन किया जाता है।
• घुलित ऑक्सीजन (Dissolved Oxygen : DO) : यह जलीय जीवों के जीवित रहने के लिए जल में घुलित ऑक्सीजन की आवश्यक मात्रा है। जब जल में घुलित ऑक्सीजन (DO) की मात्रा 5.0 मिग्रा/लीटर से कम हो जाती है तो इसे अत्यधिक प्रदूषित जल कहते हैं।
• BOD तथा DO (घुलित ऑक्सीजन) में विपरीत सम्बंध होता है अर्थात BOD अधिक होने पर DO कम होगी परन्तु यह जल प्रदूषण मापन हेतु उपयुक्त आधार नहीं है।
• रासायनिक ऑक्सीजन माँग (Chemical Oxygen Demand) : यह जल में उपस्थित समस्त कार्बनिक पदार्थों के ऑक्सीकरण के लिए आवश्यक ऑक्सीजन की मात्रा होती है। यह जल प्रदूषण के मापन का उपयुक्त आधार है।
भूमिगत जल प्रदूषण (Ground Water Pollution) :
• औद्योगिक, नगरीय एवं कृषि अपशिष्टों से युक्त जल जब रिसकर भूमिगत जल से मिल जाता है तो भूमिगत जल संक्रमित हो जाता है। इसके अतिरिक्त अत्यधिक भू-जल निष्कर्षण भी भू-जल प्रदूषण के लिए उत्तरदायी होता है।
• वैश्विक स्तर पर 2 अरब लोग स्वच्छ जल हेतु भूमिगत जल पर निर्भर हैं। पीने के अतिरिक्त कृषि एवं औद्योगिक गतिविधियाँ भी भूमिगत जल पर आश्रित हैं।
• सेप्टिक टैंक, लैंडफिल, हानिकारक औद्योगिक कचरे के ढेर, पेट्रोल, तेल, रसायन युक्त भूमिगत टैंक आदि के कारण भूमिगत जल प्रदूषित होता है।
• आयरन, लेड, आर्सेनिक, फ्लोराइड आदि तत्व भी भू-जल स्रोतों को दूषित करते हैं।
जल प्रदूषण पर निबंध
भूमिगत जल प्रदूषण के प्रभाव :
• पेयजल में उपस्थित आर्सेनिक विभिन्न मानसिक एवं शारीरिक रोगों (चर्मरोग, हड्डियों का मुड़ना, डायरिया, त्वचा कैंसर, मधुमेह, हाइपर किरेटोसिस, ब्लैक फुट आदि) का कारण बनता है।
• पेयजल में फ्लोराइड की सान्द्रता बढ़ने पर फ्लोरोसिस रोग हो जाता है, जिससे कंधों, कूल्हों एवं घुटनों में दर्द होता है तथा दाँत एवं हड्डियाँ कमजोर हो जाती हैं। भारत के 19 राज्यों में लगभग 66 लाख लोग इससे प्रभावित हैं।
• पेयजल में उपस्थित नाइट्रेट नवजात शिशुओं के हीमोग्लोबिन के साथ मिलकर मिथेमोग्लोबिन (Methemoglobin) बनाता है, जो ऑक्सीजन के परिवहन में बाधा उत्पन्न करता है। इससे नवजात शिशुओं की मृत्यु हो जाती है। इस रोग को मिथेमोग्लोबीनेमिया (Methemoglobinemia) या ब्लू बेबी सिन्ड्रोम कहते हैं।
• हाल ही में, केन्द्रीय भूमिगत जल बोर्ड (CGWB) ने भूमिगत जल में आर्सेनिक प्रदूषण पर एक रिपोर्ट जारी की है। इसके अनुसार, भारत के 21 राज्यों में ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ के जल में आर्सेनिक का स्तर भारतीय मानक ब्यूरों (BIS) द्वारा स्वीकृत सीमा से (0.01 mg/L) से अत्यंत उच्च है। इनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, पं. बंगाल, असम सर्वाधिक प्रभावित राज्य हैं।
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जल प्रदूषण पर नियंत्रण (Control on Water Pollution) :
जल प्रदूषण के उपाय
जल से सम्बन्धित कानूनों का कठोरता से पालन :
प्रदूषण से सम्बंधित कानूनों और विधियों का कठोरता से पालन किया जाना चाहिए। लोगों को इस बात के लिए जागरूक करना चाहिए कि जल कानूनों का अनुपालन उनके स्वयं के हित में है।
घरेलू सीवेज का उपचार (Domestic Sewage Treatment) :
क्लोरीन युक्त यौगिक जैसे- सोडियम हाइपोक्लोराइट आदि को जल में मिलाने से उसमें उपस्थित बैक्टीरिया तथा सूक्ष्म जीव नष्ट हो जाते हैं। क्लोरीन के प्रयोग से विभिन्न रोगों जैसे- कॉलरा, टायफाइड, अतिसार आदि से बचा जा सकता है। घरेलू सीवेज में 99% जल तथा 1% से भी कम प्रदूषक होते हैं, जो विशेष रूप से अधिक हानिकारक नहीं होते तथा इनमें से लगभग 90% से प्रदूषकों को केन्द्रीकृत सीवेज शोधन संयत्र द्वारा हटाया जा सकता है।
नियमित सफाई (Regular Cleaning) :
मानव उपयोग के लिए तालाबों, झीलों तथा कुओं की नियमित रूप सफाई एवं उपचार किया जाना चाहिए, जिससे ये मानव उपयोग के लिए उपयुक्त बने रहें। सिंक एवं शौचालयों में घरेलू कीटनाशक व दवाइयों का प्रयोग करने से बचना चाहिए तथा उनके जैविक निपटान पर बल देना चाहिए।
जन जागरूकता (Public Awareness) :
लोगों में जल प्रदूषण के प्रभावों में पर्यावरण के विषय में शिक्षा व जागरूकता उत्पन्न करने के लिए स्वैच्छिक संगठनों को सहायता होनी चाहिए साथ ही पर्यावरणीय शिक्षा केन्द्रों ( Environmental Education Centers ) की भी स्थापना होनी चाहिए।
गंगा कार्य योजना एवं राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (Ganga Action Plan and National River Conservation Plan) :
• केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा केन्द्रीय गंगा प्राधिकरण का गठन कर वर्ष 1985 में गंगा एक्शन प्लान (GAP) की शुरूआत की गई। चूँकि 35 प्रतिशत भारतीय जनसंख्या इसी नदी घाटी में निवास करती है, फलस्वरूप मल अपशिष्ट, लाशें, गाद इसी नदी तंत्र में प्रवाहित होते हैं।
• गंगा की सफाई हेतु गंगा एक्शन प्लान का प्रथम चरण (GAP-1) वर्ष 1986 से 1993 तक चलाया गया।
• वर्ष 1995 में केन्द्रीय गंगा प्राधिकरण का नाम बदलकर राष्ट्रीय नदी संरक्षण प्राधिकरण (National River Conservation Authority : NRCA) कर दिया गया। वर्तमान में इसमें 20 राज्यों के 121 शहरों से प्रवाहित होने वाली 40 नदियों का समायोजन कर दिया गया है।
• NRCA को गंगा कार्ययोजना के विलय सहित राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना की आधिकारिक संस्था बना दिया गया, इसका प्रमुख उद्देश्य नदियों के तट पर बसे शहरों में जल प्रदूषण उपशमन करके नदी जल गुणवत्ता शुद्ध बनाये रखना है।
नमामि गंगे योजना :
जून 2014 में केन्द्र सरकार द्वारा यह योजना प्रारम्भ की गई, जिसका प्रमुख उद्देश्य गंगा नदी संरक्षण, जीर्णोद्धार एवं प्रदूषण को समाप्त करना हैं।
सीवेज ट्रीटमेंट, वनीकरण, जैवविविधता का विकास, जन जागरूकता, गंगा ग्राम योजना, नदी तल की सफाई, औद्योगिक प्रवाह निगरानी आदि इसके अन्तर्गत आते हैं।
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जल प्रदूषण नियंत्रण एवं निवारण अधिनियम – 1974 :
जल प्रदूषण रोकथाम हेतु पारित इस कानून का प्राथमिक उद्देश्य मानव उपयोग हेतु जल की गुणवत्ता को बनाये रखना था। इस अधिनियम के अन्तर्गत केन्द्रीय जल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड तथा राज्य जल प्रदूषण समुद्री नियंत्रण बोर्डो की स्थापना का प्रावधान किया गया। ये दोनों बोर्ड जल प्रदूषण नियंत्रण एवं निवारण हेतु अधिकार प्राप्त संस्थान हैं।
केन्द्रीय जल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के प्रमुख कार्य :
• यह केन्द्र सरकार को जल प्रदूषण सम्बंधी सलाह देते है।
• राज्य बोर्डों के कार्यों का एकीकरण तथा जाँच एवं अनुसंधान में सहायता करता है।
• जल प्रदूषण विशेषज्ञों को प्रशिक्षण व आम जनता को जल प्रदूषण सम्बंधी जानकारी देता है।
• जल प्रदूषकों के मानक निर्धारित करता है तथा समयानुसार उनका पुनरीक्षण करता है।
• जल प्रदूषण नियंत्रण हेतु देशव्यापी कार्यक्रम संचालित करता है।
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जल प्रदूषण | जल प्रदूषण के कारण, समस्या, उपाय, निबंध, प्रकार
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